Cheque Bounce Case 2025 : चेक बाउंस मामले में सुप्रीम कोर्ट का नया नियम लागू बड़ा फैसला, अब ऐसे केसों की होगी नई सुनवाई 

Cheque Bounce Case 2025 : आज के समय में कई लोग अभी भी लाखों रुपए के भुगतान के लिए चेक का उपयोग करते हैं। लेकिन जब यह चेक बाउंस हो जाता है, तो यह एक गंभीर कानूनी मामला बन जाता है।  हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने चेक बाउंस से जुड़े एक महत्वपूर्ण मामले में बड़ा फैसला सुनाते हुए हाई कोर्ट के आदेश को निरस्त कर दिया है। इस फैसले ने पूरे देश में चर्चा का विषय बना दिया है।

Cheque Bounce Case 2025 चेक बाउंस क्या है और क्यों होता है

चेक भुगतान का एक भरोसेमंद तरीका माना जाता है। बैंक खाते से सीधे दूसरे व्यक्ति को भुगतान करने के लिए चेक एक सुविधाजनक माध्यम है। लेकिन कई बार खाते में पर्याप्त राशि न होने, हस्ताक्षर में गलती, या अन्य तकनीकी कारणों से चेक बाउंस हो जाता है। भारत में चेक बाउंस होना एक दंडनीय अपराध है, जो नीगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत आता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताज़ा आदेश में कहा कि चेक बाउंस मामलों को केवल दंडात्मक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि समझौते और पुनर्भुगतान की दृष्टि से देखा जाना चाहिए, ताकि अदालतों पर भार कम हो सके।

सुप्रीम कोर्ट की अहम टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला देते हुए कहा कि देश में बड़ी संख्या में चेक बाउंस के मामले लंबित हैं, जिससे न्यायिक प्रणाली पर भारी दबाव पड़ा है। अदालत ने कहा कि यदि दोनों पक्ष आपसी सहमति से समझौता करने को तैयार हों, तो अदालतों को ऐसे मामलों में समझौते को बढ़ावा देना चाहिए।

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न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति ए. अमानुल्लाह की पीठ ने यह निर्णय सुनाते हुए स्पष्ट कहा कि न्याय व्यवस्था को केवल सज़ा देने के बजाय “प्रतिपूरक न्याय” (compensatory justice) के सिद्धांत को अपनाना चाहिए। अदालत ने यह भी कहा कि ऐसे मामलों में दंडात्मक कार्रवाई के बजाय पुनर्भुगतान और समझौते को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

Cheque Bounce Case 2025
Cheque Bounce Case 2025

सुप्रीम कोर्ट ने क्यों रद्द किया हाई कोर्ट का आदेश

यह मामला पी. कुमारसामी उर्फ गणेश बनाम सुब्रमण्यम से जुड़ा हुआ था। वर्ष 2006 में कुमारसामी ने प्रतिवादी सुब्रमण्यम से ₹5.25 लाख का कर्ज लिया था और भुगतान के लिए एक चेक जारी किया था। लेकिन खाते में अपर्याप्त राशि के कारण चेक बाउंस हो गया। इसके बाद सुब्रमण्यम ने शिकायत दर्ज कराई, और निचली अदालत ने कुमारसामी को एक साल की सजा सुनाई। कुमार सामी ने इस फैसले को चुनौती दी और अपील अदालत ने उन्हें राहत देते हुए सजा को रद्द कर दिया। लेकिन बाद में हाई कोर्ट ने इस राहत को खारिज करते हुए निचली अदालत के आदेश को बहाल कर दिया। इसके खिलाफ कुमारसामी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि इस मामले में दोनों पक्षों के बीच समझौता हो चुका था, और शिकायतकर्ता को ₹5.25 लाख की राशि भी प्राप्त हो चुकी थी। ऐसे में अदालत ने कहा कि चूंकि मामला पहले ही सुलझ चुका है, इसलिए आरोपी को सज़ा देना न्यायोचित नहीं होगा।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय और उसका महत्व

11 जुलाई को सुनाए गए इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि चेक बाउंस से जुड़े मामलों में अदालतों को समझौते और भुगतान को प्राथमिकता देनी चाहिए। न्यायमूर्ति धूलिया और अमानुल्लाह की पीठ ने कहा कि अदालतों को ऐसे मामलों में सख्त कानूनी ढांचे के तहत “प्रतिपूरक उपाय” को बढ़ावा देना चाहिए ताकि पीड़ित पक्ष को उचित मुआवजा मिले और आरोपी को भी सुधार का मौका दिया जा सके। अदालत ने यह भी कहा कि देशभर में लंबित चेक बाउंस मामलों की संख्या लाखों में है, जिससे न्यायिक प्रक्रिया में देरी हो रही है। इस कारण, अदालतों को ऐसे मामलों का निपटारा तेजी से करना चाहिए ताकि लोगों को वर्षों तक कोर्ट-कचहरी के चक्कर न काटने पड़ें।

चेक बाउंस पर सुप्रीम कोर्ट की विशेष टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि चेक बाउंस होना एक “नियामक अपराध” (regulatory offence) है, न कि ऐसा अपराध जिसमें कठोर सजा आवश्यक हो। इस अपराध को सार्वजनिक हित को ध्यान में रखते हुए दंडनीय बनाया गया है ताकि आर्थिक व्यवस्था में विश्वास बना रहे। अदालत ने कहा कि यदि किसी व्यक्ति ने अपनी गलती सुधार ली है और शिकायतकर्ता को भुगतान कर दिया है, तो उसे सज़ा देना केवल औपचारिक न्याय होगा, न कि वास्तविक न्याय। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में “दंडात्मक” नहीं बल्कि “सुधारात्मक और प्रतिपूरक” दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह ऐतिहासिक फैसला न केवल न्याय की व्यावहारिकता को मजबूत करता है बल्कि समाज में आर्थिक विश्वसनीयता को भी बढ़ाता है। अदालत ने स्पष्ट किया है कि चेक बाउंस जैसे मामलों में कानून का उद्देश्य किसी को सज़ा देना नहीं बल्कि न्यायसंगत समझौते को सुनिश्चित करना होना चाहिए। इस फैसले से यह संदेश जाता है कि यदि दोनों पक्ष सद्भावना के साथ विवाद का समाधान कर लें, तो न्यायिक प्रक्रिया भी उन्हें सहयोग देगी। सुप्रीम कोर्ट का यह कदम न्याय की दिशा में एक संतुलित और मानवीय दृष्टिकोण की मिसाल बनकर उभरा है।

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